जब जब मैंने
अपने ही मुख से
अपनी प्रशंसा की
तो तुमने मुझे
आत्म प्रशंसक कहकर
मेरी भरपूर निन्दा की।
फिर मैं थोड़ा ऊपर उठा
स्वयं से हटा
तो मजहब से सटा
फिर भी तुमने न माना
सांप्रदायिक कहकर
देने लगे ताना।
अब मैं फिर भागा
तो प्रांत को पकड़ा
तुम अपनी हरकत से
बाज नहीं आए।
प्रांतियता का लगाकर आरोप
लोगों के बीच
मेरी प्रतिष्ठा पर
कीचड़ उठाला।
संकीर्ण दिमाग वाला
मुझको कह डाला
तब मैंने पहना
राष्टीयता का जामा
दूसरे राष्टों को
नीचा दिखाकर
स्वराष्ट की प्रशंसा पर
गीत लिख डाला।
तुम्हारी अब छाती
गर्व से तन गई
तुमने फिर मंच पर
मुझको बुलाकर
माला पहनाया।
पदक दिलवाया ।
हर्षोल्लास के आवेग में
विगुल बजवाया।
हल्की हँसी मुझे
उसी वक्त आई
और साथ साथ ही
आँखें भर आई
आवाज लड़खड़ाई
पर मैने भी अपनी
हिम्मत दिखाई
फूटे स्वर में हीं
आखिर कह डाला
वसुधैवकुटंबकम का
तुम्हारा वह नारा।
तुम्ही बताओ
क्या यहाँ नहीं हारा ?
उपरोक्त साहित्यिक रचनाएँ स्वर्गीय बी एन झा द्वारा लिखित पुस्तक इन्द्रधनुष से ली गई है ।
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