हमारी कर्मस्थली में
एक मुख्य स्थान पर
गोबर का एक बड़ा ढेर है
तकरीबन सभी उसे
गोबर हीं कहते हैं
पर कुछ चुनिन्दे उसे
आदमी भी कहते हैं
वो इसलिए कि
यह गोबर का ढेर
हिलता – डुलता नजर आता है
मैं भी असमंजस में रहता हूँ
अपनी पूरी आवाज में कहता हूँ
मुझे पता नहीं चलता
कि गोबर में आदमी है
कि आदमी में गोबर है।
यूँ तो गोबर कहने से
गोबर – गणेश का
यानी मंद बुद्धि का बोध होता है
पर यह गोबर
अपनी तीव्र गंध हेतु विख्यात है
गोबराना स्वभाव हेतु प्रख्यात है
तो गोबर में आदमी
कौन है बेहतर या कौन है कमतर
पर मेरी लघु बुद्धि कहती है
बात है बराबर
बहरलाल –
इस गोबर के पास
अधिकांश को जाना पड़ता है
क्योंकि वह वाध्य करता है
लोग जाते हैं
पाँव में गोबर लगा आते हैं
कुछ रोते हुए
कुछ पैरों को धोते हुए
कई खिसियाते हुए
कई झुंझलाते हुए
कुछ छटपटाते हुए
कुछ धैर्यवान मुस्कुराते हुए
अपनी अपनी जगह
लौट आते हैं।
अनुभव सुनाते हैं
इनमें से कुछ प्रबुद्ध वर्ग वाले
तथाकथित सूझ – बूझ वाले
ये जानते हुए
कि पाँव में गोबर ही लगा है
उसकी जाँच हेतु
पाँव में लिपटे गोबर को
हाथ लगा जाते हैं
फिर उसे नाक की तरफ ले जाकर
उसकी प्रामणिकता पर
असंदिग्धता का
मुहर लगाते हैं।
इस तरह इस क्रम में
उन्हें तीन जगह गोबर लगता है
हाथ पाँव व नाक में
फिर भी वो रहते हैं
इस प्रक्रिया की
पुनरावृति की ताक में
उन्हें इस क्रिया में
कितना मजा आता है।
ये तो वही बतायेंगे
परन्तु इस गोबर लग जाने वालों में
मैं भी एक हूँ
और मुझे दिन में कई बार
गोबर लगता है।
क्योंकि मैं गोबर का
अत्यन्त करीबी हूँ
मुझे बदूंक की नोंक पर
करीबी का गौरवमय
मुकुट पहनाया गया
बाद में सुगर कोटेड कुनैन
खिलाया गया
थोड़ा फुसलाया गया
थोड़ा बहलाया गया
मैं प्रबुद्ध वर्ग में
अपने को नहीं गिनता
इसलिए गोबर को
गोबर समझते हुए
पाँव तक हीं सीमित रखा
लेकिन प्रबुद्ध वर्ग में
आने के लोभ में
या यूँ कहिए कि
प्रिविलेज्ड क्लास वाले
उन जैसा मजा पाने के मोह में
सेवा के प्रोटोकॉल में
या दफ्तरी मायाजाल में
तीनों जगह गोबर मखने की प्रक्रिया में
कुछ दिन मैं भी शामिल होता रहा
परिणामस्वरूप ,
सब्र – चैन खोता रहा
दिन में दसों बार रोता रहा
और शायद उनका आखरी हो ये सितम ,
की तर्ज पर
हर सितम
मन – बेमन ढोता रहा।
पर धीरे – धीरे
गोबर की दुर्गंध
मेरे शरीर से भी आने लगी
मेरे घर में भी छाने लगी
मेरी दिनचर्या को रुलाने लगी
मेरे स्वास्थ्य को खाने लगी ,
मेरी पत्नी नहीं है मैं विधुर हूँ।
बहू मेरे पास आना छोड़ने लगी
नौकरानी नाक भौं सिकोड़ने लगी
बच्चे नापसन्द करने लगे
पड़ोसी नाक बंद करने लगे
इन सब के बावजूद भी
मैं गोबर के पास जाता रहा
इसे अपनी नियति समझ
दिनचर्या निभाता रहा
समय बिताता रहा
पर एक दिन अचानक
मेरा ज्ञान – चक्षु खुला
तो मैं नियति को भुला –
गोबर से संघर्ष करना छोड़ दिया
उसे पाँव या हाथ मार मारकर
अपने पूरे बदन पर
छीट की भाँति बिखरने की
शिशुजन्य प्रक्रिया को
मैंने रोक दिया।
गोबर के पास तो जाता रहा
पर उसे छूने से कतराता रहा
परन्तु वह काजल की कोठरी क्या
जो अपना कजरिया रंग न लगाये
उस गोबर का गौरव क्या
जो आपको चिपक नहीं जाये
सो यही हुआ
एक दिन गोबर की
तीव्र गोबरिया गंध
मेरी नासिका को भेद गया
फेफड़े को छेद गया
मन को कुम्हला दिया
ह्र्दय को अकुला दिया
हाय , किससे मैं भिड़ गया ?
कि गस खाकर गिर गया।
व्याधिभवरं में पड़ने लगा
जीते जी मरने लगा
तो गोबर के सशक्त बाहुपास से
उस दिन फिसल पड़ा
बुद्ध की तरह
कर्मस्थली से निकल पड़ा —
सन्यस्थ होने चल पड़ा
अभी संन्यास के
दो चार दिन ही बीते थे
कि मेरा एक अजीज
तथाकथित करीब
एक पार्टी में मिल गये
मिलते ही हाथ मिलाया
तपाक से पूछा , क्यों बंधु ?
मैदान छोड़ गए
संघर्ष से मुँह मोड़ गए
मैंने कहा , हाँ भइया –
मैं दीवार से संघर्ष नहीं करता
सिर फूटेगा
गोबर से नहीं लड़ता
देह पर उड़ेगा
आंधी तूफ़ान में संभलना
बाढ़ के बहाव से बच बच के चलना
दुष्टों की राह से बच के निकलना
साँप को देखकर राहें बदलना
अगर ये सभी
मैदान छोड़ना है
तो मैं कायर हूँ
हाँ मैं मैदान छोड़ गया
और इस दृष्टि से
भगवान श्रीकृष्ण से बड़ा कायर
इस जगत में आपको नहीं मिलेगा
जरासंघ से बच के
चौदह बार मथुरा से भागे
तो हे मेरे बंधुवर
जरा सुनिए।
मै तो उन्मुक्तता का रसिया हूँ
मान का मनबसिया हूँ
जीना चाहता हूँ
पर सिर को उठाकर
इसलिए मैं पिंजरवद्ध नहीं हो सका
सम्मान नहीं खो सका
,,तारुफ रोग हो जाए तो उसको
भूलना बेहतर
ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको
तोड़ना अच्छा ,,
और जब गोबर को हो जाए
इत्र का गुमान
तो अंजाम गुलिस्ताँ का
जरा लगाइए अनुमान
और अंत में एक बात और
जिस ढेर को मैंने
गोबर कहा है
वह दरअसल गोबर भी नहीं है ,
गोबर लाख खराब हो
कभी कभी पवित्र भी होता है।
प्रायश्चित – संस्कार में काम आता है
भारतीय घर की
लिपाई पुताई
उसी से होती है
अब चूँकि गोबर से निम्न जो चीज है
उस पर कविता तो नहीं
लिखी जा सकती
वह न तो लिपने में
काम आती है
न पोतने में जगह पाती है
वह न तो बोली जा सकती है
न लिक्खी जा सकती है
इसलिए मैं खामोश हूँ ,
मेरी मजबूरी जानिए
आप प्रबुद्ध श्रोता व पाठक हैं ,
मन में समझ जाइए।
किसी को मत बताइए।
उपरोक्त सामयिकी कविताएँ स्वर्गीय बी एन झा द्वारा लिखित पुस्तक इन्द्रधनुष से ली गई है ।