कविता ; शाश्वत


ओ सुंगध।
तुम अगर अन्न होते

तो मैं तुम्हें पकाकर खा जाता
कहाँ है इतना धैर्य मुझे

कि मैं तुम्हें सूँघता रहूँ
अतृप्त हाने के लिए।

हे स्मृति।
तुम अगर पेय होते

तो मैं गट गट कर पी जाता।
कहाँ है इतना साहस

कि तुम्हारे वातायन से
अपने दुखानूभूति को झाँककर

मैं सतत रोता रहूँ।
वर्तमान को खोता रहूँ

और कहां है इतना सयंम
मीठी गुदगुदी से

हंस हंस कर
रो पडूँ।

हे सौन्दर्य।
अब कहाँ तक देखता रहूँ तुम्हें

आँखें चुधिया चुधियाकर
अंधी हो गई हैं।

इसलिए सोचता हूँ कि
यदि तुम फल होते

तो कच्चा चबा जाता तुझे। —
मगर तुम तीनों

न अन्न हो।
न जल हो।
न फल हो।

इसलिए प्रत्येक कुछ घंटे बाद
पेट तुम्हें नहीं माँगता है।

तुम मरने से बच जाते हो।
इसलिए तो सुगंध

स्मृति व सौन्दर्य
कहलाते हो।
शाश्वत बन जाते हो।

उपरोक्त साहित्यिक रचनाएँ स्वर्गीय बी एन झा द्वारा लिखित इन्द्रधनुष पुस्तक से ली गई है ।

 

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