फेसबुक को छोड़कर फेस को पढ़ने की जरूरत है

मीमांसा डेस्क।

प्रौद्योगिकियाँ और प्रगति इंसान का उत्थान करने के लिये है , लेकिन इंसान नशे की लत की तरह उसके ऊपर अनावश्यक निर्भरता बढ़ाए जा रहा है , जिसके कारण सामाजिक क्लेश पैदा हो रहे हैं। मानसिक रोग बढ़ रहे हैं और जीवन का रस खत्म हो रहा है। दुर्भाग्य से मानसिक स्वास्थ्य एक ऐसा विषय है , जिस पर आज भी लोग बात करना नहीं चाहते। इसी सोच के कारण कितने ही ऐसे लोग हैं ,जो अपनी कमजोरियों और परेशानियों का हल नहीं ढूंढ पाते और आगे चलकर उनकी परेशानियाँ घातक रूप भी ले लेती है।

कितने ही ऐसे लोग है , जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी खत्म करने का भीषण कदम उठा लिया , केवल इसलिये कि संचार के दौर में वो अंदर से अकेले थे। उनकी परेशानी समझने वाला और उसका हल ढूंढने वाला कोई उनके पास नहीं था।

उदासी और अकेलापन दुनियाभर में साइलेंट किलर कहलाया जाता है , क्योंकि जहाँ ये अंदर से इंसान को तोड़ देता है , वहीं सतही तौर पर इनका कोई निशान नहीं होता।

इसी कारणवश इस मानसिकता को बदलने की जरूरत दिन – प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। लोगों को फेसबुक को छोड़कर फेस को पढ़ने की जरूरत है , ताकि किसी के अंदर छिपे दुख , दर्द क्लेश को सुलझाने में उनकी मदद की जा सके। छोटे – छोटे प्रयासों में बड़े – बड़े हादसे टल सकते हैं , और सामाजिक स्तर पर होते बदलाव के कुप्रभावों को भी समझा जा सकता है।

जैसे हर सिक्के के दो पहलू होते है , वैसे हर बदलाव के साथ अच्छे – बुरे दोनों परिणाम जुड़े होते हैं । इस प्रति और मशीनीकरण के साथ हुए सशक्तिकरण को अनदेखा नहीं किया जा सकता। आज हर इंसान अपनी आवाज दुनियाँ को सुना सकता है।

अत्याचार के खिलाफ आवाज उठा सकता है। सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिये मुहीम चला सकता है। ज्ञानवर्धक कर सकता है , और ये सब मुमकिन है , क्योकि सोशल मीडिया दुनियाँ की आवाज बन रहा है। घर में बैठे लोग अपनी बात दुनियाँ के सामने रख सकते हैं। सोचना केवल ये है कि आवाज किसी का भला करेगी या फिर हम इस माध्यम का गलत इस्तेमाल करके किसी को नुकसान पहुँचायेंगे।