सात फेरों से बँधी , हर मान्यता घटती गई

सात फेरों से बँधी , हर मान्यता घटती गई
शुष्क बन्धन , रिश्तों की हर आर्दता मिटती गई
हीनता का भाव , प्रतिदिन मन में गहराता गया
मैं हताशा और निराशाओ में यूँ बहती गई।
आवेग में आकर कभी सोचा वचन को तोड़ दूँ
जो बने अवरोध , जीवन में उसे मैं छोड़ दूँ
व्यग्रता इतनी बढ़ी , दरियाओं का रूख मोड़ दूँ
व्योम को घुटनों के बल लाकर धरा से जोड़ दूँ
काल है , प्रतिकूल बस ये सोंच सब सहती गई
हो गई जब साँसे चोटिल , मैं रही निष्काम तब भी
हो मेरे आराध्य तुम , कटू सत्य ये भूली नहीं मैं
बंधनों से युक्त सकेतों पे उठती बैठती थी
वर्जनाओं से कभी भी , मुक्त न हो पाई मैं
मै सशकित उम्रभर , शोषित हुई होती गई

उपयुक्त पंक्तियां रजनी सैनी सहर की लिखित पुस्तक परिधि से पहचान तक से ली गई है।