खून के रिश्तों में भी जब से सियासत हो गयी

खून के रिश्तों में भी जब से सियासत हो गयी
दुनिया की हर शय से हमको खुद शिकायत हो गई
आदमी ने आदमी को इतनी दे दीं मुश्किलें
अपनों से दामन बचाना अब रवायत हो गई
जीने का अंदाज बदला वक्त ने ली करवटें
खो गया आंगन का बचपन सौंधी मिट्ठी खो गई।
चार टुकडों में बंटी रोटी का मीठापन गया
छीनकर माँ का निवाला एक रोटी हो गई
प्यार था कल की हकीकत अब बनावट हो गई
अब बुजर्गो की दुआ भी बद्दुआ लगने लगी
भाई अब भाई की खुशियों से खफा होने लगा
खत्म कर डालें हैं रिश्ते आदमी ने प्यार के
घर की इज्जत का जनाजा अब दफा होने लगा
चन्द रुपयों की चमक में वे सजावट हो गई।
कल की खुशियां ढूंढ़ती हैं अक्स अब तनहाई में
मिट गई ढ़ोलक की थापें दर्द है शहनाई में
मुंह छुपाकर रो रही हैं , किससे अब शिकवा करें
चन्द यादें हैं भटकती अश्कों की अंगनाई में
दिल के रिश्तों में भी खालिश मिलावट हो गई।

उपयुक्त पंक्तियां रजनी सैनी सहर की लिखित पुस्तक परिधि से पहचान तक से ली गई है।