ओ मंदिर के
उच्च शिखर।
जब तुम्हें देखकर
दुनिया याद करती है
कभी कभार मुझ आधार को
तो मैं हो जाता हूँ खुश।
पर कुछ लोग जब
मेरी कुर्बानी की
प्रशंसा करते है
तो मुझे अपार
दुख होता है।
जब वो कहते हैं।
शिखर खड़ा है यह
मेरी मज़बूत पीठ पर
तो मैं लज्जित हो जाता हूँ।
उन्हें ये बताता हूँ ,
कि तुम मुझ पर खड़ा नहीं
मैं तुझ पर खड़ा हूँ।
मेरा वजूद है
तेरे ही कारण।
मंदिर मंदिर हैं
तेरे ही कारण।
शिखरहीन कोई
मंदिर क्या होता है ?
मेरा आधार तुम हो
मेरी ज़िन्दगी की नाव
तेरी भव्यता व प्रसिद्धी के
पतवार से है चालित।
मैंने तो चुना है
अपनी मर्ज़ी से
जमीन में गड़ना।
तुम्हारे वगैर मैं
गुमनाम रह जाऊंगा।
वक्त की धारा में
बेजान बह जाऊंगा।
उपयुक्त पंक्तियां स्व. विनोदा नन्द झा की लिखित पुस्तक इन्द्रधनुष से ली गई है।