विड़बना

आज का हर इंसान।
जूत्ते पहनकर।
बाग मे चला जा रहा है।
कांटे की चुभन का।
गीत गुनगुना रहा है।
सदा अपनी आँखो पर।
धूप चश्मा लगाता है।
रंग बिरंगे फूलों की।
बाते बताता है।
मौसमानुकूल वस्त्र
तन को पहनाता है।
शबनम के मोती।
फूलों पे बिखर की।
कविता सुनाता है।
पर जो चलता है।
जूत्ते खोलकर।
उसके पाँव लहूलुहान है।
बिना चश्में वाले की।
आँखे वीरान है।
और बेवस्त्र।
शबनम मे नहाने वालो के जिस्म।
लगभग बेजान है।

उपयुक्त पंक्तियां स्व. विनोदा नन्द झा की लिखित पुस्तक इन्द्रधनुष से ली गई है।