सुराहीदार गर्दन और कोई ब्रह्मा ।
हिरणी सी चाल उसमे फूँक, दें प्राण।
शराबी आँखे तो जो निकलेगी नारी।
गुलाबी गाल होगी, भयंकर।
चम्पई पाँव कुरूपता, की मूर्ति।
संगमरमर का बदन आश्चर्य है।
कोयल की आवाज़, नारी के किसी वर्ग मे।
बलखाती कमर हुआ नहीं।
नागिन सी चोटी इन कवियों के विरुद्ध।
मोती से दाँत आनदोलन।
बालो मे सावन की घटा नारी, तो संदियो से।
चेहरे पे पूनम की छटा पुरुषों, की झूठी प्रंशसा पर।
रंग आफ़तावी फूली इठलाती रही।
रूप माहतावी गर्व से गाती रही।
कल्पना कीजिए – और खुलती रही चोंच ।
कोई चित्रकार गिरती रही रोटी ।
अपने कैनवास पर कौए की रोटी।
ऐसे ही नारी मे मिटती रही भूख।
भर दें रंग लोमड़ी की भूख ।
उपर्युक्त पंक्तियां स्व. विनोदा नन्द झा की लिखित पुस्तक इन्द्रधनुष से ली गई है।