देती है तिलमिला ,

हम शौक से खा लेते है गैरो की गालियाँ।
अपनों की मगर तोहमते देती है तिलमिला।

होगी खुशी हमें जो चल पडे गुलो के संग –
कुछ नागफ़नी के भी उगाने का सिलसिला।

रब देता है इन्साफ इस जनम का उस जनम।
राजा का यही हाल प्रजा को है ये गिला।

चलता है अब हर एक सख्स लेके संग कफ़न।
कब किस जगह आ जाए राहजन का काफ़िला ,

इन्सानियत के शव को है हनुमान की तलाश
सजीवनी लाकर जो उसे फिर से दें जिला।

दावे के साथ कह नहीं सकते कि दोस्त वो –
देगा जहर का जाम नहीं आपको पिला।

अपनों ने की चोरी हमारे घर से एक चिराग।
घर फूँक प्यार का हमें अच्छा दिया सिला।

इस आस मे पत्थर से प्यार कर रहे है हम।
शायद वो एक रोज कोई फूल दें खिला।

उपर्युक्त पंक्तियां स्व. विनोदा नन्द झा की लिखित पुस्तक इन्द्रधनुष से ली गई है।