सारिका झा।
दूसरों के सुखद परिणाम अक्सर अपने मन में आह को स्थान देते हैं, या यूं कहें कि हम ऐसा सोचते हैं कि देखो…वह कितना खुश है। वह कितना सफल है। उसके बच्चे बड़े संस्कारी हैं। उसका परिवार बहुत अच्छा है। अच्छे लोग हैं। आज सफलता उसके कदम चूम रही है। देश, समाज में उसका कितना नाम और सम्मान है। न जाने और कितनी सारी बातें हैं, जो दूसरों की अच्छी लगती हैं, आकर्षित करती हैं, और लोग एक अनजाने दुख और जलन से भर जाते हैं कि यह सारी चीजें उनके पास नहीं है, और सारा दोष वह नसीब को दे देते हैं।
क्या वाकई यह औचित्यपूर्ण है । व्यवहारिक रूप से सोचें तो बिल्कुल नहीं है। हम सबको उतना ही मिला, जितना हमने प्रयास किया है। न किसी को ज्यादा न किसी को कम। आपको आपके कर्मों के अनुरूप सफलता नहीं मिली, एक सोचने वाली बात हो सकती है, मगर दूसरे के किये कर्मों पर उसे सफलता मिली तो आपका विचार करना और आह भरना बिल्कुल गलत है। सही दिशा में दिन-रात प्रयास करने वाले व्यक्ति को जितनी अधिक और जितनी जल्दी सफलता मिलेगी, वही सफलता भटके हुए और प्रयास नहीं करने वाले को कभी नहीं मिल सकती। परिणाम हमेशा अलग-अलग होंगे क्योंकि प्रयास अलग हैं।
इसी तरह अगर आपको कोई बच्चा संस्कारी दिखता है, तो उसमें विशेष रूप से माता-पिता के साथ घर वालों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वह बच्चे के पालन-पोषण में हर छोटी से बड़ी बात का ख्याल रखते हैं, और उसके साथ अपने व्यवहार के लिये भी सचेत रहते हैं। बच्चा नैतिक बातें किताबों से कम और व्यवहारिक रूप से अधिक सीखता है।
इससे उलट अगर आप, बच्चे का पालन-पोषण करते समय केवल उसके मुंह में निवाला खिलाने, महंगे कपड़े देने, उसकी मनचाही बातें पूरी करने में अपनी भूमिका को पूर्ण समझते हैं, तो यह जान लीजिये कि आपने बच्चे को बड़ा करने में कोई मेहनत नहीं की। आपने एक ऐसे बच्चे को बड़ा किया, जिसकी एक घर परिवार और स्वस्थ समाज के निर्माण में नगण्य भूमिका होगी, क्योंकि उसे केवल अपनी इच्छाओं की पूर्ति करनी है, और भविष्य में वह उसी के लिये जियेगा।
ध्यान रखिये ! कभी भी एक व्यक्ति से समाज का निर्माण नहीं होता, बल्कि जीवन को सुखी और सुविधापूर्ण बनाने में कई लोगों की भूमिका होती है। उनके साथ आपसी सांमजस्य बनाना पड़ता है। यह व्यवहार की बातें हैं, जिनकी नींव बचपन में ही माता-पिता द्वारा रखी जाती है।
मैं ही मैं हूं, दूसरा कोई नहीं, यह गाने में तो अच्छा है, मगर यह ख्याल आपको दंभी बनाता है। व्यक्ति का आत्मसम्मान उसे आकर्षक बनाता है मगर अभिमान उसके आकर्षण को कम करता है। अब बात करते हैं घर-परिवार की। आपने महसूस किया होगा कि किसी-किसी का घर देखने में भले ही भव्य न हो मगर वहां जाना, बैठना और वहां रहने वालों से बातें करना आपको काफी सुकून और शांति देता है। एक अनजानी सी खुशी मिलती है। वहीं कुछ घरों में जाकर मन बोझिल हो जाता है। वहां रहने वाले लोगों से बचकर निकलने का मन होता है।
ऐसा क्यों ? जवाब है कि जिस घर में जाकर आपका मन प्रसन्नता से भर जाता है, वहां इंट-पत्थर के मकान को आपसी स्नेह, परवाह से घर का रूप दिया गया। एक ऐसा घर बनाया गया जहां दिन भर के थके हारे लोगों को सुख चैन और आराम मिलता है। उस घर में रहने वाले एक-दूसरे से अपनी मन की बातें बड़ी ही सहजता से बांटकर खुश रहना जानते हैं।
जबकि कई मकान इसलिये घर नहीं बन पाते क्योंकि रहने वालों ने स्वयं को एक मशीन बना लिया है। जो अपने लिये एक संरक्षित जगह पाकर समय-समय पर जरूरत के मुताबिक चलते हैं और निर्जीवों की तरह अहसासहीन रहते हैं। परिवार में एक-दूसरे के प्रति उदासीनता, स्वयं के अनुसार चलने का विचार मकान को घर बनने नहीं देता, तो भला वहां सुख और सुकून कैसे वास कर सकता है।
इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति सबका प्यारा है, और उसे घर समाज में सभी जगह मान दिया जाता है, तो बेशक उसके कर्म भी सम्मान देने योग्य होंगे। सबके प्रति स्नेह और बराबरी का व्यवहार किसी भी अनजान व्यक्ति का ध्यान खींचता है। वहीं इसके विपरीत अगर आप अपने सामने किसी और के अस्तित्व की अहमियत कम समझते हैं, तो उसकी नजरों में आपका मान भी कम होता है।
निष्कर्ष में, जिस भी रिश्ते, भाव या काम को सींचने में आप अपना वक्त देंगे वह निश्चित ही आपको सुखद परिणाम के साथ प्राप्त होगा। इसलिये दूसरों की सफलता को हसरत से देखने से अच्छा इस पंक्ति को समझना होगा कि जैसा कर्म करेगा, वैसा फल देगा भगवान, ये है गीता का ज्ञान।