स्वामी विवेकानन्द ने संपूर्ण भारत के सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक पुनर्जागरण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई

सुभाष राज।

12 जनवरी 1863 को पौष संक्रांति के शुभ दिन कलकत्ता के दत्त परिवार में जन्में नरेन्द्र दत्त, जो विवेकानन्द के बचपन का नाम था, बचपन से ही ईश्वर का ध्यान करते और गौतम बुद्ध के दर्शन से प्रभावित थे। वे ब्रह्म समाज के केशव चन्द्र सेन के संपर्क में भी रहे। महज 18 वर्ष की आयु में उनका रामकृष्ण परमहंस प्रथम साक्षात्कार हुआ।

उस वक्त उन्होंने परमहंस से पूछा था कि महाशय, क्या आपने ईश्वर को देखा है? इस पर रामकृष्ण परमहंस जी का उत्तर था — हां देखा है, अभी भी देख रहा हूं। ईश्वर को अनुभव से सिर्फ महसूस किया जा सकता है।

उसी दिन से विवेकानन्द ने रामकृष्ण परमहंस को अपना गुरु बना लिया। एक बार अपनी गरीबी से तंग आकर विवेकानन्द ने स्वामी जी से गरीबी से छुटकारा दिलाने की बात कही। तब गुरु रामकृष्ण, विवेकानन्द को कलकत्ता के दक्षिणेश्वर काली माता के मंदिर ले गए।

यहां माता के सामने समाधि लगाई। इस दौरान उनके मुख से ‘मां मुझे वैराग्य दो’ तीन बार निकला। तब गुरु रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें समझाया कि उनका जन्म भौतिक सुख-सुविधा भोगने के लिए नहीं अपितु गरीबों को ऊंचा उठाने के लिए हुआ है।

1886 में रामकृष्ण परमहंस की महासमाधि के पश्चात् उन्होंने कलकत्ता में ‘बेलूर मठ’ की स्थापना की और उनके शिष्यों को संगठित किया। उन्हीं के एक शिष्य खेतड़ी के राजा अजीत सिंह ने उन्हें ‘स्वामी विवेकानन्द’ नाम दिया।

11 सितम्बर 1893 को  अमेरिका के शिकागो में आयोजित सर्व धर्म सम्मेलन में उन्होंने वहां उपस्थित सभी को ‘भाइयों एवं बहनों’ संबोधित करके सबका दिल जीत लिया था।

यहीं पर उन्होंने शिव पुराण की एक श्लोक का अर्थ बताते हुए कहा कि — सभी नदियां जैसे विभिन्न उद्गमों से निकलकर समुद्र में जा मिलती है उसी प्रकार सभी धर्मों का गंतव्य एक ही है, इसलिए एक दूसरे को अच्छा-बुरा कहना व्यर्थ है।

अमेरिका में उनके धर्म संबंधी विचार और ओजस्वी भाषण को सुनकर उनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय बन गया था। वहां की मीडिया ने उन्हें ‘साइक्लोनिक हिन्दु’ का नाम दे डाला था।

युवा सन्यासी स्वामी विवेकानन्द ने धर्म को सेवा का केन्द्र मानकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया था। स्वामी विवेकानन्द ने संपूर्ण भारत के सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक पुनर्जागरण के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। राष्ट्रप्रेम की भावना उनमें कूट-कूट कर भरी हुई थी।

4 जुलाई 1902 को 39 वर्ष की अल्पायु में अपना शरीर त्यागने वाले स्वामी विवेकानन्द के बताए हुए रास्ते पर समाज को लौटना होगा।