प्रेम, प्यार और लव मैरिज : भाग-2

अमित तिवारी

पिछले आलेख में हमने यह जाना कि प्रेम, प्यार, मोह और अनुराग में मूलत: अंतर क्या है?

संक्षेप में दोहरा लेते हैं।

प्रेम वस्तुत: अलौकिक भाव है। प्रेम किसी से करने का नहीं, अपितु किसी में होने का भाव है। जैसे पुष्प की सुगंध उसके प्रेम का उदाहरण है। यह सुगंध मोह से परे होती है और सबके लिए समान होती है। प्रेम भी ऐसा ही है। मोह भी किसी से नहीं और घृणा का कोई भाव भी नहीं। श्रीकृष्ण भी ऐसे ही प्रेम के प्रतीक हैं।

वहीं, हमारे मन का वह भाव जो हमें किसी से जोड़ता है, वह मूलत: प्यार, मोह या अनुराग जैसा कुछ होता है।

अनुराग का मूल आकर्षण है, जैसे किसी के रूप, गुण, संपन्नता आदि से आकर्षित होकर उसके प्रति अपनत्व का भाव गहराते जाना।

मोह मूलत: भाव से जुड़ा है। किसी के व्यवहार की मधुरता हमें उसके समीप ले जाती है। समय के साथ वह मोह प्रगाढ़ हो जाता है।

वहीं प्यार किसी के सामीप्य के कारण समय के साथ उपजी भावना है।

किसी के प्रति इनमें से ही किसी भाव के कारण एक समय आता है, जब हम चाहते हैं कि उस संबंधित व्यक्ति से हमारा विवाह हो जाए।

यही लव मैरिज है। सामान्यत: जहां आपके जीवनसाथी के चयन में प्राथमिक भूमिका आपका परिवार और आपके अन्य संबंधी निभाते हैं, वहीं लव मैरिज में चयन आपका होता है।

अंतत: परिवार स्वीकार कर लें तो सहजता से या फिर उनके न मानने की स्थिति में लड़कर या भागकर कैसे भी, हम बस विवाह कर लेना चाहते हैं और विवाह कर भी लेते हैं।

पिछले आलेख के अंत में हमने यह प्रश्न उठाया था कि अनुराग, मोह या प्यार की प्रगाढ़ता के बाद हुआ विवाह कई मामलों में कुछ समय पश्चात् ही एक गलत निर्णय जैसा क्यों लगने लगता है?

कुछ ही समय पहले खूब प्रयासों के साथ लव मैरिज करने वाले दोनों लोग, अचानक उस स्थिति में कैसे पहुंच जाते हैं कि बस अलग हो जाना चाहते हैं?

आज इसी प्रश्न के समाधान तक पहुंचने का प्रयास करेंगे। इसके बाद भी यदि कुछ प्रश्न मन में रह जाएं, तो अवश्य पूछिए। उनके समाधान की राह भी मिलकर तय करेंगे

अपने प्रश्न के समाधान तक पहुंचने के लिए पहले यह समझते हैं कि विवाह वस्तुत: है क्या?

असल में विवाह बस किसी के साथ फेरे लेने या रजिस्ट्रार के पास जाकर रजिस्ट्रेशन करा लेने वाला संबंध नहीं है। विवाह का अर्थ है किसी को जीवनसाथी बनाने का निर्णय। इसके लिए पूरे जीवन के बारे में सोचना होता है। बस किसी से विवाह कर लेना पर्याप्त नहीं है।

जीवन व्यावहारिकता से चलता है और जीवनसाथी के साथ हमें व्यावहारिक होना होता है। साथ ही जीवनसाथी की व्यावहारिकता को स्वीकार भी करना होता है।

अनुराग, मोह और प्यार में प्राय: इस व्यावहारिकता की कमी होती है। जब हम आकर्षण में होते हैं, तो बस उस आकर्षण में बंधे होते हैं। सामने वाले को भी आकर्षित करने का प्रयास करते हैं। इस पाश में प्राय: बहुत कुछ अव्यावहारिक होता है।

मोह की स्थिति में भी हम बहुत सी बातों की अनदेखी करते हैं या यह भी कहा जा सकता है कि हमें उस पक्ष के अतिरिक्त किसी पक्ष के बारे में पता ही नहीं होता है सामने वाले के। बस हम दोनों एक-दूसरे के सामने वही व्यवहार करते हैं, जो एक-दूसरे को पसंद है।

प्यार भी ऐसा ही है। हम बस उसके सामीप्य के लिए कुछ भी कर देना चाहते हैं। उस समय व्यावहारिकता और अव्यावहारिकता का अंतर हमें ध्यान ही नहीं रहता है। हम बस उस संबंध को अपना बनाने के प्रयास में सब कुछ करना चाहते हैं और करते भी हैं।

प्यार और अन्य भावनाओं के उन क्षणों में हम एक-दूसरे से ऐसे बहुत से वादे करते हैं, जो व्यावहारिक रूप से संभव नहीं होते हैं। हम एक-दूसरे के समक्ष न चाहते हुए भी थोड़ा सा झूठ जीते हैं। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से न अपने झूठ पर ध्यान देते हैं और न ही उसके सत्य को स्वीकार करने के बारे में कभी सोचते हैं। उस समय बस मन में यह होता है कि कहीं किसी कारण से, किसी गलती से हम उसे खो न दें। खो देने का यह भय भी कई बार झूठ और अव्यावहारिकता की ओर ले जाता है। हम इतना करते हैं, जितना किसी भी हाल में हमेशा संभव नहीं हो पाएगा। हम समर्पण की सामान्य सीमाओं को भी पार कर देते हैं।

लेकिन,

विवाह के बाद सब कुछ इतना सीधा नहीं रह पाता है। जीवन में बदलाव होते हैं। आप जिसका सामीप्य चाह रहे थे, अब वह हमेशा आपके ही साथ है। विवाह किसी को साथी नहीं, जीवनसाथी बनाने का निर्णय होता है। अब जब संबंध जीवनभर के लिए बनता है, तो उसमें जीवन की व्यावहारिकताएं स्वत: समाहित हो जाती हैं। विवाह से पहले जब तक हम प्रेम में होते हैं, तो बस इतना सा लक्ष्य होता है कि उसे कुछ बुरा न लग जाए। बाकी किसी जिम्मेदारी का न बोध होता है और न ही कोई ऐसी जिम्मेदारी होती है। लेकिन विवाह तो है ही जिम्मेदारी। अब सबकुछ पहले जैसा नहीं रह पाता है। अब हमारे लिए भी सभी सीमाओं को पार करना न संभव रह जाता है और न ही व्यावहारिक।

पहले हम बस एक-दूसरे के व्यवहार के कुछ पहलुओं को जान और देख रहे थे। कुछ ऐसा यदि दिख भी जाता है, जो अच्छा नहीं लगता है, तब भी हम बस यह सोचकर अनदेखी कर देते हैं कि कोई बात नहीं, सामने वाला समय के साथ बदल जाएगा।

यहीं से समस्या भी प्रारंभ होती है। विवाह से पहले हर वह बात, जो हमें थोड़ी-बहुत सही नहीं भी लगती है, उसके लिए हम मन में यही धारणा बना लेते हैं कि सामने वाला बदल जाएगा।

लेकिन,

हम अपने ऐसे किसी व्यवहार पर ध्यान नहीं देते हैं और स्वयं को बदलने का कोई विचार भी हमारे मन में नहीं आता है। साथ ही, हम दोनों एक-दूसरे से झूठ बोलते हैं कि विवाह के बाद कुछ नहीं बदलेगा।

आखिर क्यों नहीं बदलेगा?

सच तो यह है कि विवाह के बाद सबकुछ बदलने जा रहा होता है। आप एक-दूसरे से ज्यादा जिम्मेदारी की अपेक्षा करेंगे। अब आप दोनों के साथ आपके परिवार भी जुड़ चुके होंगे। उनके साथ आपका व्यवहार भी आपके आपस के संबंधों को प्रभावित करेगा। कई रिश्ते बदल जाएंगे। बहुत सारी बातें विवाह के बाद पहले जैसी नहीं रह जाएंगी।

यदि हम एक-दूसरे से यह झूठ बोल भी रहे हैं कि कुछ नहीं बदलेगा, तब भी हमें अपने विवेक से यह स्वीकार करके चलना होगा कि बहुत कुछ बदलने वाला है और हमें उसके हिसाब से बदलना ही होगा।

दोस्त होने या प्यार में होने की अपनी खूबियां हैं। जब तक प्यार में होते हैं, तब तक संभव है कि दोस्तों के बीच में गुस्से में एक-दूसरे को गाली भी दे दें। लेकिन, विवाह के बाद जब एक-दूसरे के परिवार जुड़ चुके होते हैं, तब उसी आवाज, उसी अंदाज में वही गाली हम में से किसी को अच्छी नहीं लगेगी। अब यदि हम में से कोई भी यह नासमझी दिखाएगा और व्यवहार को पहले जैसा ही रखना चाहेगा, तो निसंदेह दूसरे को अच्छा नहीं लगेगा। तब हम दलील देंगे कि पहले तो कभी मेरा गुस्सा करना और गाली देना बुरा नहीं लगा, अब क्यों लगने लगा?

यही वह बिंदु है, जब हमें व्यावहारिकता की आवश्यकता होती है। वस्तुत: फिल्में और सीरियल देखकर किसी के आकर्षण में बंध जाना और फिर फिल्मों जैसे ही प्यार करना, व्यावहारिकता नहीं है। एक समय विशेष तक हो सकता है कि आपको अच्छा लगे। लेकिन उसकी सीमा बस उतनी ही है। क्योंकि फिल्म को तीन घंटे में खत्म हो जाना है। और वैसे भी फिल्मों और सीरियलों में भी कई बार यह दिखाया जाता है कि विवाह के बाद कैसे परिस्थितियां बदल जाती हैं और सब खराब होता चला जाता है। उनमें भी अंतत: एक-दूसरे को समझने, बदली परिस्थिति को स्वीकार करने और अपने व्यवहार में बदलाव की सीख दी जाती है।

लेकिन,

हम बस फिल्म के फर्स्ट हाफ से ही सीखना चाहते हैं, जबकि जीवन फिल्म के सेकेंड हाफ जैसा होता है।

किसी से प्यार, मोह या अनुराग होना कतई गलत नहीं है।

जिससे प्यार हो, उससे विवाह की इच्छा रखना गलत नहीं है।

जिससे प्यार हो, उससे विवाह हो जाने में भी कुछ गलत नहीं है।

लेकिन,

प्यार में रहते समय विवाह के बाद को लेकर अव्यावहारिक सपने देखना-दिखाना गलत है। विवाह के बाद की व्यावहारिकता को न समझना गलत है। विवाह के बाद होने वाले बदलावों को न स्वीकार करना गलत है। यह सोचना कि विवाह के बाद भी जीवन पहले जैसा ही बना रहेगा, यह गलत है। बदलावों को न स्वीकारते हुए एक-दूसरे को दोष देना गलत है। बदलावों को स्वीकारने में एक-दूसरे का साथ न देना गलत है।

आपको स्वयं बदलना होगा और साथ ही सामने वाले को भी बदलावों के लिए तैयार करना होगा।

यह स्वीकार कीजिए कि आप दोनों के बीच एक नया संबंध होगा। यह संबंध कतई पहले जैसा नहीं हो सकता है। बहुत ज्यादा अपेक्षाएं और जिम्मेदारियां होंगी। यह समझना होगा कि जो अपेक्षा आपको है और जो जिम्मेदारी का भाव आप सामने वाले में देखना चाहते हैं, ठीक वैसी ही अपेक्षा उसे भी आपसे होगी। वह भी आपसे वैसी ही जिम्मेदारी का भाव चाहेगा। आप बस सामने वाले की अपेक्षा को पूरा करने और अपनी जिम्मेदारी को पूरा करने का प्रयास करें, आपका जीवनसाथी स्वत: आपकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने लगेगा और अपनी जिम्मेदारियों को समझने लगेगा।

विवाह ‘पहले मैं क्यों’ वाले सिद्धांत से नहीं, बल्कि ‘पहले मैं क्यों नहीं’ के सिद्धांत से चलता है।

आपस में एक नए संबंध के साथ-साथ आप दोनों के जीवन में कई अन्य नए संबंध भी बनेंगे। अपने बीच के नए संबंध और उन सब नए संबंधों को साधना ही विवाह है और उन सभी संबंधों को साधने में एक-दूसरे का साथ देने वाले ही जीवनसाथी हैं।

बस किसी को पा लेना ही विवाह नहीं है। उसे जीवनभर के लिए अपने साथ रखने के लिए अपने अंदर आवश्यक बदलाव करने का नाम विवाह है। प्यार में ब्रेकअप होता है, लेकिन विवाह में ब्रेकअप का विकल्प लेकर नहीं चला जा सकता है। बात अरेंज मैरिज की हो या लव मैरिज की, इनका उद्देश्य बस पार्टनर पाना नहीं, लाइफ पार्टनर पाना होता है।

(समाधान है… कॉलम में ऐसे ही अनुत्तरित लगने वाले प्रश्नों के समाधान पाने का प्रयास होगा। प्रश्न आप भी पूछ सकते हैं। प्रश्न जीवन के किसी भी पक्ष से संबंधित हो सकता है। प्रश्न भाग्य-कर्म के लेखा-जोखा का हो या जीवन के सहज-गूढ़ संबंधों का, सबका समाधान होगा। बहुधा विषय गूढ़ अध्यात्म की झलक लिए भी हो सकते हैं, तो कई बार कुछ ऐसी सहज बात भी, जिसे पढ़कर अनुभव हो कि यह तो कब से आपकी आंखों के सामने ही था। प्रश्न पूछते रहिए… क्योंकि हर प्रश्न का समाधान है।)

 

9 thoughts on “प्रेम, प्यार और लव मैरिज : भाग-2

  1. जी…प्यार पहले मैं क्यूं की जगह मैं क्यूं नहीं के सिद्धांत का ही नाम है।
    दूसरी आपकी ये बात एकदम सटीक है कि जो कहते हैं कि कुछ नहीं बदलेगा तो वो दूसरे से नहीं खुद से भी झूठ बोल रहा है।
    पहले की तरह ही बहुत अच्छा लिखा है।
    लिखते रहिए।

    1. धन्यवाद आकांक्षा,
      दरअसल लोग संबंधों को बहुत मशीनी अंदाज में समझने का प्रयास करते हैं और इसी कारण भावनाएं मर रही हैं। संबंधों को संबंधों की तरह ही जीना होगा।

  2. एक और ‘आचारोत्तेजक’ लेख के लिए बहुत-बहुत ध्न्यवाद, मित्रवर। आपकी विचारोत्तेजना प्रशंसनीय है, और मैं भी अपनी आदत से मजबूर हूं, इसलिए अपने प्रिय विषय पर आपके अकाट्य तर्कों के समक्ष अपने चंद विचार रख रहा हूं।
    मैं हमेशा से यह मानता हूं कि जरिया और नजरिया में अद्भुत अंतर्संबंध है। किसी भी चीज के बारे में हमारा नजरिया क्या है, यह विशुद्ध रूप से इस पर निर्भर करता है कि उसे जानने का हमारा जरिया क्या है। मशहूर शायर वसीम बरेलवी का एक बड़ा प्यारा शेर है:

    मैं चाहता भी यही था, वो बेवफा निकले…
    उसे समझने का कोई तो सिलसिला निकले…

    वर्तमान पीढ़ी के मन में वैवाहिक संबंधों को लेकर जितनी भी उलझनें, समस्याएं और दुश्वारियां हैं, उसका कुल कारण सिर्फ इतना है कि वह बेवफाई की हद तक पहुंच जाने के बाद ही समझने का सिलसिला शुरू करता है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि प्रेम और विवाह को ठीक से समझ पाने का इसका जरिया (पीछे गुजरीं चंद पीढ़ियां) बड़ा ही खोखला और उथला-छिछला रहा है। सबसे पहले तो हम यह समझें कि प्रेम और विवाह का आपसी कोई संबंध नहीं है। प्रेम उपलब्धि है, मंजिल है, मुक्ति है। विवाह बंधन है, प्रक्रिया है। दोनों की यात्रा दिशाएं बिल्कुल अलग रही हैं। तो हमने पहली गलती यह की है कि प्रेम और विवाह को अलग-अलग ठीक से समझने की कभी कोई जहमत नहीं उठाई। हमारी दूसरी, और मेरी समझ में पहले से ज्यादा बड़ी गलती यह है कि हमने विवाह को प्रेम की परिणति माना है। हमने हमेशा मंजिल को रास्ता और रास्ते को मंजिल माना है। स्वाभाविक है कि जो रास्ते को मंजिल समझते हैं वह सिर्फ भटकते हैं, भटकना उनकी नियति है।
    अपने लेख के इस दूसरे खंड में आपने वैवाहिक बंधन में रिश्ता को समझने और निभाने की जरूरत पर जोर दिया है। यह सफल वैवाहिक जीवन के लिए बेहद जरूरी है। लेकिन हमें एक कदम पीछे चलना होगा, तब हम शायद चीजों को ठीक से समझ पाएं। हमें यह पहचानना होगा कि विवाह का मकसद क्या है। हम आखिर विवाह क्यों करना चाहते हैं? इस प्रश्न के उत्तर पर वैवाहिक संबंधों का सारा गणित टिका है। इस बात को ठीक से समझिए।
    आदर्श स्थिति में विवाह की जरूरत शारीरिक, पारिस्थितिक और सहज-स्वाभाविक – इन तीन अवस्थाओं में होती है। पहली अवस्था अत्यंत सतही और विवाह जैसी संस्था के लिए कतई गैरजरूरी है। हालांकि कई स्थानों पर अब तक यही विवाह का प्रमुख कारण होता था, लिहाजा शारीरिक जरूरतों का अंत आते-आते उन रिश्तों में घुटन, बोझ और छटपटाहट के सिवा और कुछ बचता नहीं था। वर्तमान में अधिकतर प्रेम विवाह की परिणति यही है, क्योंकि शारीरिक जरूरतें हमें प्रेम का भ्रम देती हैं। विवाह की दूसरी और पारिस्थितिक अवस्था में वैवाहिक बंधन में बंधे लोगों की जरूरतें सिर्फ शारीरिक नहीं होतीं, लिहाजा वे पूरी शिद्दत से संबंध निभाने की कोशिश करते थे। ऐसे संबंध आहिस्ता-आहिस्ता प्रगाढ़ भी होते थे। लेकिन विवाह की तीसरी और सहज-स्वाभाविक आदर्श स्थिति वह है, जब आपको, और जिससे आप विवाह करना चाहते हैं, दोनों को अपनी-अपनी मंजिल का पता होता है। बल्कि आप दोनों विवाह करना ही इसलिए चाहते हैं क्योंकि आपको लगता है कि उस मंजिल तक पहुंचने के लिए आपके लिए उस दूसरे व्यक्ति से अधिक और कोई मददगार नहीं हो सकता है। विवाह का कुल मकसद यह है कि आप कुछ होना चाहते हैं, आपका साथी भी कुछ होना चाहता है और दोनों इस कुछ हो जाने में एक-दूसरे की बिना किसी लाग-लपेट, बिना किसी बदलाव-टकराव और बिना किसी उलझन के संपूर्ण मदद करते हैं। विवाह तो अपने साथी को, जो भी वह होना चाहता है, वह होने की संपूर्ण स्वतंत्रता और उसमें संपूर्ण सहयोग देने का अनुभव है। और यह वैवाहिक बंधन में बंधे दोनों पक्षों के लिए समान है। इसमें टकराव या बदलाव की कोई गुंजाइश कहां बचती है? राम-सीता, कृष्ण-रुक्मिणी या सिद्धार्थ-यशोधरा जैसी सफलतम वैवाहिक जोड़ियों का हम उदाहरण ही इसलिए देते हैं कि इनमें से कोई भी दूसरे के जीवन के चरम लक्ष्यों में कभी बाधक नहीं बना। याद रखें, इन जोड़ियों में परिस्थिजन्य जिन बदलावों के हम साक्षी रहे हैं, वे लक्ष्य-केंद्रित थीं, तात्कालिक घटना-केंद्रित नहीं। इस बदलाव का वाहक तो महाभारत की गांधरी भी थीं, जिन्होंने आजन्म आंखों पर पट्टी बांध्ने की कसम ली। आप कस्तूर-बा को देखें। ये सब अद्भुत उदाहरण हैं।
    कुल मिलाकर कहें, तो आदर्श स्थिति में विवाह किसी भी पुरुष और स्त्री के जीवन में एक ऐसा साथी आने का नाम है, जो उसे अपना सर्वस्व हासिल कर लेने में मदद करे। इसे ऐसे समझें कि आपकी यात्रा समूह से शुरू होती है। वह समूह आपको उस एक जीवन-साथी तक पहुंचाता है, जिसे पाने के बाद आप समूह भी छोड़ देते हैं और यात्रा भीड़ से दो में सिमट जाती है। अंत में आपका समर्पित जीवन-साथी आपको उस द्वार तक लाकर छोड़ता है, जहां के लिए हम कहते हैं कि प्रेम गली अति सांकरी, जा मे दो न समाए। उसमें तो आप अपने जीवन-साथी के साथ भी नहीं जा सकते। ऐसे आदर्श विवाह के माध्यम से मिला साथी आपको आपके सर्वोच्च रूप से, प्रेम से आपका परिचय कराता है। जी हां, प्रेम जीवन का सर्वोच्च रूप है। प्रेम व्यक्ति की सर्वोच्च अवस्था है, उपलब्ध् िहै, मंजिल है। जब आप इनकी गहराइयों में उतरेंगे तो पाएंगे कि उस एकाकार अवस्था में आपको सबमें अपनी छाया दिखती है। तभी तो कहते हैं: तुझमें रब दिखता है यारा मैं क्या करूं। इसे दूसरे तरीके से भी कह सकते हैं कि अगर आप बिना किसी स्वार्थ और नियंत्रण भाव के अपने जीवन-साथी के साथ कदम से कदम मिलाकर चलते हैं तो इसकी बहुत अधिक गुंजाइश है कि दोनों अपने गंतव्य को उपलब्ध हो जाएं, प्रेम हो जाएं।
    वापस लौटते हैं। जिस प्रेम के वशीभूत होकर हम किसी से विवाह करना चाहते हैं, वह हमें सिर्फ प्रेम होने का भ्रम देता है, प्रेम नहीं होता। इसलिए उस माध्यम से हुआ विवाह भी प्रेम विवाह नहीं हो सकता। असल में वह एक भ्रम विवाह है, जो टूट जाता है। इसलिए बदलाव की, एक-दूसरे को समझने के विफल कोशिशों की, मनोविज्ञानी और सलाहकार की और भांति-भांति के उपायों की जरूरत होती है।
    किसी ने कहा है कि प्रेमी एक-दूसरे की ओर नहीं देखते, वे एक साथ किसी एक चीज को देखते हैं।
    बहरहाल, आप ऐसे ही निर्बाध लिखते और दिखते रहिए…

    1. अहा… अद्भुत…
      पहले की ही तरह आपने अपनी टिप्पणी में एक नया ही लेख रच दिया।
      यह टिप्पणी इस विषय को और सार्थक कर रही है।
      आपकी तरफ से मिला प्रोत्साहन लिखने और दिखने के लिए प्रेरित करता है।

  3. Jindagi Mai raahe tab aasan ho jati hain jab parakhne wala nahi samjhane wala hamsafar ho. Bahut hi acha likha hai aapne. Aise hi kuch aur topic par likhte rahiye. kafi help milti hai humko apne jeevan mai bhi apke in vicharo ko padhkar.

    1. धन्यवाद रेखा जी,
      हमारा लिखा किसी साथी के लिए लाभप्रद हो, इससे सुखद क्या होगा।
      आपकी टिप्पणी हमारी प्रेरणा है।

  4. विचारणीय लेख! यह ख्वाबों में पिरो रहे सपनों को धरातल पर रखकर उन्हें समझने की सोच को विकसित करता है!! ऐसे ही लिखते रहें ताकि समाधान मिलते रहें।

  5. विचारणीय लेख! यह ख्वाबों में पिरो रहे सपनों को धरातल पर रखकर उन्हें समझने की सोच को विकसित करता है!! ऐसे ही लिखते रहें ताकि समाधान मिलते रहें।

  6. मुझे तो लगता है कि #प्‍यार अब सिर्फ लिव-इन रिलेशन में रह गया हैै. कई मामलों में देखता हूं कि पति-पत्‍नी का ज्‍यादातर समय लड़ने-झगड़ने या अदालत का चक्‍कर लगाने में ही बीत रहा है.

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