kavita ; अंजुली में भर लो।

अंजुली में भर लो , उलीचो मत
लाज से सिकुड़ती इस जाड़े की धूप को 

चादर यह नरम गरम तन पर लपेट लो
सूरज की चांदनी ये मन में समेट लो

खींच सांस में दो कुछ गरमाहट रूप को
लाज से सिकुड़ती इस जाड़े की धूप को 

कोमल खरगोश सा नरम – नरम जिसका तन ,
दुलराओं पुचकारों छू लो , खेलो शिशु बन

मन्द मन्द आंच दो उर – भावना अनूप को 
जोड़ो दो हाथ ठहर जे भागे ना

अंक लगे सोये फिर देर तक जागे ना
हे सुरूप छीन वाह्ययान्तर कुरूप को 

लाज से सिकुड़ती इस जाड़े की धूप को 
द्रुतगामी ग्रीष्म की सहेली को दुलराकर

पूर्णयौवना की मन्द चाल वायु में लाकर
भीषण तपन विमुक्त कर लिया स्वरूप को 
लाज से सिकुड़ती इस जाड़े की धूप को।

नोट – यह कविता स्वर्गीय विनोदा नंद झा की लिखित कविता संग्रह इन्द्रधनुष पुस्तक से साभार ली गई है।