ना जाने मैं बदल सकूंगा ,
या कि खुद बदला जाऊंगा ?
देख रहा हूं रीत जगत में ,
झूठी सच्ची प्रीत जगत में।
चंचल मन जाने ना सत को ,
आंखें खोजें मीत जगत में।
झूठ कहूं तो कैसे कह दूं ,
उसका रोना भी सच जैसा।
परदे के किस्सों के भीतर ,
उसका होना भी सच जैसा।
वो मुझमें है या है जग में ,
यह भ्रम कैसे दूर करुं।
खुद को छलते जाने का ,
यह क्रम कैसे दूर करुं।
कैसे कह दूं पास है मेरे ,
दूरी मन के भीतर है।
उसकी यादों के शर -से ही ,
मन घायल सा तीतर है।
भूल गया यह सच तो नहीं ,
पर यादें भी तो झूठी हैं।
सपने जब – जब टूटे है ,
कुछ उम्मीदें भी टूटी हैं।
लेकिन हर इक सच के आगे ,
शायद सच को पाऊंगा।
ना जाने मैं बदल सकूंगा ,
या कि खुद बदल जाऊंगा ?