गज़ल एक गज़ल की कोशिश

 

 

 

इस तरह उनके हवाले हो गये थे
के नज़र तक पै भी जाले हो गये थे ,

सालों तक किरदार उजला लग रहा था
लोग दिल के कितने काले हो गये थे ,

जब वफ़ा के नाम पर धोख़ा मिला था।
रूह तक में मेरी छाले हो गये थे ,

उसका जाना सांस का जाना हुआ था।
और मुश्किल भी निवाले हो गये थे ,

हिज़्र में उस बेवफ़ा की रात क्या थी
सुबह   के मंज़र भी काले हो गये थे ,

अक्ल जिनमें थी नहीं दौलत को पाकर
‘मित्र’ अंधे, आँख वाले हो गये थे।

उपर्युक्त ग़ज़ल मित्रपाल शिशौदिया द्वारा लिखी गई है।

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