स्मृतियों के
गवाक्ष से
हर छोटी याद का
एक छोटा झोंका
सनसनाता हुआ
आता है
मुझे न जाने
क्या कह जाता है
कि मैं उद्दिग्न
हो जाता हूँ।
ये बात अलग है कि
रोज के कार्य में उलझकर
उसे भूल जाता हूँ।
पर वह छोड़ नहीं पाता है।
अन्तस को
झिकझोड़ने का क्रम।
अब कुछ कहना छोड़कर
मन के तन्तुओ पर
दबे पाँव आता है।
आसन जमाता है।
इसलिए कार्य के स्वरूप को
थोड़ा या ज्यादा
कहीं न कही से
बेढ़गा बना जाता है।
उपयुक्त पंक्तियां स्व. विनोदा नन्द झा की लिखित पुस्तक इन्द्रधनुष से ली गई है।