ग़ज़ल महानगर

सूरज की किरण सहर शहर में नहीं लाती।
दहशत की थाप देर रात से ही जगाती।

छंदो में बसे चाँद को पढ़ते हैं यहाँ लोग।
अब लाल के मामा को कोई माँ न बुलाती।

दफ़्तर में परेशान है घर के घुटन से हम।
घर में बेईमानी हमें दफ्तर की सताती।

गमलों के बाग ने कहाँ घूमें बताइए।
आती है याद गाँव की आँखों को रुलाती।

गिरता है लड़खड़ा के यहाँ आम आदमी।
ये भूख की शराब जो ठोकर है खिलाती।

कोठी में वो है , हम भी हैं बस फर्क है इतना।
दिन हमको सुलाता है रात उनको सुलाती।

उपरोक्त ग़ज़ल स्वर्गीय बी एन झा द्वारा लिखित पुस्तक इन्द्रधनुष से ली गई है ।

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