जाने क्यूँ सच कभी – कभी

जाने क्यूँ सच कभी – कभी
कमजोर सा मालूम होता है ,

मन मेरा भी कभी – कभी
इक चोर सा मालूम होता है।

शब्द शिकायत करते हैं कि
अर्थ समझ से बाहर है ,

कहते हैं जब लब कुछ तो
कुछ और सा मालूम होता है

जब बोलूँ सावन तो दिल
सूखी लकड़ी , सा लगता है ,

पतझर में गमके फूलों में
जोर सा मालूम होता है।

जब चाहा बोलूँ कुछ तो सब
चुप – चुप सा लगता है ,

जब चुप बैठूं तो दिल में
इक शोर सा मालूम होता है।
संघर्ष वफाएं करते रहें ,

रिश्तों से रिश्ते छूट गये ,
जब छोड़ चले रिश्ते – रिश्तों में
भोर सा मालूम होता है।

मन मेरा भी कभी – कभी
इक चोर सा मालूम होता है।
जाने क्यूं सच कभी – कभी —

उपयुक्त पक्तियाँ अमित तिवारी द्वारा लिखी गई है।