सागर , तुम हो कौन ? बड़ी – बड़ी झलकती आंखो से नदी ने कहा।
मै कौन हूं ये क्या सवाल है ? एक तुम ही तो हो , जो अच्छे से जानती हो
कि मैं कौन हूं ।
मै जान ही तो नहीं पाई कि तुम हो कौन ? हर रोज चेहरा बदल लेते हो तुम। जब – जब मुझे लगता है कि अब समझ गई हूं कि तुम कौन हो, तब तुम्हारा कोई और रूप आ जाता है मेरे सामने।
नदी — तुम इतना सोचती क्यों हो ? तुम सोचती हो , इसीलिए तो समझती नहीं हो। सोचना छोड़ दोगी , तो समझ जाओगी। इतना आसान सा तो हूं मैं। जैसे नदी , वैसा सागर। आखिर नदी से ही तो बना हूं। तुम पता नहीं कहां उलझ जाती हो ? नदी से
सागर तक के रास्ते में उलझन की गुंजाइश कहां होती है ?
उफ बस तुम्हारी यही बात — मुझे उलझा देती है। तुम मुझे जानते ही कितना हो। और अब जानते ही नहीं तो कैसे हो गई मैं तुम्हारी नदी ?
मुझे चिढ़ होती है तुम्हारी इसी बात से। तुम इतना मत सोचो मेरे बारे में।
बिलकुल मत सोचो। ,नदी, एक सांस में बोलती चली गई।
सागर को नदी के बारे में जानने की ज़रूरत ही क्या है ? और फिर सागर थोड़े ना चुनता है अपने लिए नदी। वो तो होता ही नदी के होने से है। शांत सा सागर यही सोचता रहा।
उपयुक्त पक्तियां अमित तिवारी के द्वारा लिखी गई है।